पिछले दिनों ईरान के सर्वोच्च नेता सैयद अली ख़ामेनेई ने भारत में मुसलमानों की हालत पर अपनी राय ज़ाहिर की.
उन्होंने उन देशों का ज़िक्र किया था, जहाँ मुसलमानों पर ज़ुल्म हो रहा है और इसी क्रम में उन्होंने भारत का नाम भी लिया था.
भारत ने उसका बुरा माना और प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि ईरानी नेता की ये टिप्पणी ‘न सिर्फ़ अस्वीकार्य है बल्कि निंदनीय’ भी है.
भारत और ईरान के आपसी संबंध काफ़ी पुराने और दिलचस्प रहे हैं, दोनों के रिश्तों को अक्सर ‘दो सभ्यताओं का रिश्ता’ कहा जाता है.
आइए जानते हैं कि ऐतिहासिक तौर पर ये रिश्ते किन उतार-चढ़ावों से गुज़रे हैं.
1971 की जंग और ईरान
सन् 1971 की भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान ईरान के शाह को पाकिस्तान के टूटने की चिंता सताती रही थी.
इसके पीछे दो कारण थे, एक तो पाकिस्तान के प्रांत बलूचिस्तान की सीमा ईरान से मिलती है और दूसरे उन्हें डर था कि उस समय के घटनाक्रम को देखते हुए सोवियत संघ को इलाक़े में हस्तक्षेप करने का मौक़ा न मिल जाए.
श्रीनाथ राघवन अपनी किताब ‘1971 ग्लोबल हिस्ट्री ऑफ़ क्रिएशन ऑफ़ बांग्लादेश’ में लिखते हैं, “मई, 1971 में भारत के विदेश सचिव टीएन कौल, शाह से मिलने तेहरान गए थे. भारत को ख़ुफ़िया जानकारी मिली थी कि ईरान ने पाकिस्तान को हथियार भेजे हैं.”
“कौल ने शाह से अनुरोध किया था कि वो पाकिस्तान को हथियार न दें और याहया ख़ान को समझाएं कि वो मामले को इतना न बढ़ाएं कि वो एक बड़ा संकट बन जाए. लेकिन इस मुलाक़ात से पहले ही ईरान के शाह ने याहया ख़ान से अपनी नीति बदलने के लिए दबाव डालना शुरू कर दिया था.”
मोहम्मद यूनुस अपनी किताब ‘भुट्टो एंड द ब्रेकअप ऑफ़ पाकिस्तान’ में लिखते हैं, “शाह ने बाद में भुट्टो को बताया था कि मैंने याहया से राजनीतिक कार्रवाई करने का अनुरोध किया था. मेरी सलाह थी कि शेख़ मुजीब की अवामी लीग पार्टी की सरकार बनाने का रास्ता साफ़ होना चाहिए.”
इंदिरा गांधी को ईरान के शाह का संदेश
23 जून, 1971 को भारत में ईरान के राजदूत ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से मुलाक़ात करके शाह का मौखिक संदेश दिया था कि उन्हें और याहया ख़ान को आपस में बात करनी चाहिए.
पीएम म्यूज़ियम एंड लाइब्रेरी (पहले नेहरू मेमोरियल) में रखे हक्सर पेपर्स बताते हैं कि इंदिरा गांधी का मानना था कि ये एक ‘अजीब सा सुझाव था, जिसका वास्तविकता से कोई लेना-देना नहीं था.’
उन्होंने तुरंत अपना एक मंत्री भेजकर रज़ा शाह पहलवी से कहलवाया था कि इस मसले का समाधान पश्चिमी और पूर्वी पाकिस्तान के नेताओं के बीच बातचीत से ही हो सकता है.
संदेश के जवाब में इंदिरा गांधी ने लिखा था, “आपके इस संदेश पर मैं सिर्फ़ ये ही कह सकती हूँ कि शायद हम आपको पाकिस्तान की ओर से खड़ी की गई समस्या की व्यापकता को समझा पाने में कामयाब नहीं रहे हैं.” (हक्सर पेपर्स, फ़ाइल 168)
पाकिस्तान को हथियार भेजने का सवाल
1971 की लड़ाई से पहले अमेरिका ने पाकिस्तान को हथियार भेजने के लिए कई विकल्पों पर विचार किया था जिनमें ईरान भी शामिल था.
श्रीनाथ राघवन लिखते हैं, “शाह ने अमेरिकी राजदूत को बताया कि वो पाकिस्तान को लड़ाकू विमान और पायलट इसलिए नहीं भेज रहे क्योंकि वो सोवियत संघ से टकराव नहीं चाहते. उन्होंने सुझाव दिया कि वो विमान जॉर्डन भेजने के लिए तैयार हैं. जॉर्डन विमानों को पाकिस्तान भेज सकता है.”
मोहम्मद यूनुस लिखते हैं, “दरअसल, ईरान का पाकिस्तान से गुप्त समझौता था कि भारत-पाकिस्तान युद्ध होने की दशा में कराची की हवाई सुरक्षा की ज़िम्मेदारी ईरान की होगी.”
“याहया ने ईरान को इस समझौते की याद भी दिलाई लेकिन शाह ने अपना वादा पूरा नहीं किया. उनका तर्क था कि भारत और पाकिस्तान की लड़ाई केवल दो देशों की लड़ाई नहीं रह गई है.”
भारत से रिश्ते मज़बूत करने में ईरान की दिलचस्पी
टैगोर को 14वीं सदी के फ़ारसी कवि हाफ़ेज़ की कविताएं बहुत पसंद थीं. वो शीराज़ में उनकी मज़ार पर भी गए थे.
आज़ादी से पहले भारत की सीमाएं ईरान से लगती थीं लेकिन विभाजन के बाद सब कुछ बदल गया.
जब सन् 1953 में ईरान के शाह की सत्ता में वापसी हुई तो ईरान ने पश्चिम का साथ देने का फ़ैसला किया जबकि भारत ने गुटनिरपेक्ष देश बनने की नीति चुनी.
ईरान पाकिस्तान को मान्यता देने वाला पहला देश था. सन् 1965 और 1971 दोनों लड़ाइयों में उसने पाकिस्तान का साथ दिया.
सन् 1969 में ईरान के शाह पहली बार भारत आए. सन् 1973 में इंदिरा गांधी ने ईरान का दौरा किया.
शाह एक बार फिर अक्तूबर, 1974 में भारत आए. ये दौरा इसलिए महत्वपूर्ण था क्योंकि ये यात्रा भारत के पहले परमाणु परीक्षण के कुछ महीनों बाद हुई थी.
इस दौरे के बाद से भारत ईरान से बड़ी मात्रा में कच्चा तेल आयात करने लगा और दोनों देशों के बीच कुद्रेमुख लौह अयस्क परियोजना को विकसित करने पर भी सहमति बनी.
इस्लामी क्रांति के बाद के हालात
सन् 1979 की इस्लामी क्रांति से ईरान के अंदरूनी और बाहरी हालात बदले लेकिन कश्मीर पर ईरान के रुख़ और अमेरिका और इसराइल से भारत की बढ़ती नज़दीकी के बावजूद ईरान के नए नेतृत्व की भारत के साथ संबंध बेहतर करने में दिलचस्पी बनी रही.
1980 और 1990 के दशक में ईरान भारत के कच्चे तेल की ज़रूरत पूरा करने वाला महत्वपूर्ण देश बन गया.
दोनों देशों ने चाबहार बंदरगाह परियोजना और अफ़गानिस्तान के साथ मध्य एशिया को जोड़ने की दिशा में साथ काम किया.
तालिबान के उदय के बाद उसके ख़िलाफ़ लड़ रहे बुरहानुद्दीन रब्बानी के नेतृत्व वाले नॉदर्न अलायंस को भारत और ईरान दोनों का समर्थन मिला जबकि पाकिस्तान और तालिबान के रिश्ते जगज़ाहिर थे.
चाबहार बंदरगाह का विकास
सन् 2003 में राष्ट्रपति मोहम्मद ख़ातमी की भारत यात्रा के दौरान भारत और ईरान के बीच ‘दिल्ली घोषणा’ पर दस्तख़त हुए, जिसके अंतर्गत क्षेत्रीय सुरक्षा, आतंकवाद का विरोध और आपसी व्यापार बढ़ाने पर ख़ासा ज़ोर दिया गया.
पाकिस्तान को बाइपास कर अफ़ग़ानिस्तान पहुँचने के लिए चाबहार बंदरगाह का विकास भारत ईरान संबंधों का मुख्य बिंदु बन गया.
इन संबंधों को उस समय चुनौतियों का सामना करना पड़ा, जब अमेरिका ने ईरान पर प्रतिबंध लगा दिए और इन प्रतिबंधों को प्रभावी बनाने के लिए कई देशों पर दबाव डाला कि वे ईरानी तेल न ख़रीदें, इन देशों में भारत भी शामिल था.
इन सबके बावजूद चाबहार परियोजना में भारत की दिलचस्पी बरकरार रही.
भारत, ईरान और पाकिस्तान ने तीनों देशों को जोड़ने वाली तेल पाइपलाइन बनाने की संभावना पर गंभीरता से विचार किया लेकिन बाद में सुरक्षा कारणों से भारत इस परियोजना से अलग हो गया.
भारत का ईरान के ख़िलाफ़ वोट
अविनाश पालीवाल अपनी किताब ‘माई एनिमीज़ एनिमी’ में लिखते हैं, ‘भारत ने सन् 2009 में अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एंजेंसी (आईएईए) के मंच पर ईरान के परमाणु कार्यक्रम के ख़िलाफ़ वोट किया, जिसकी वजह से दोनों देशों के संबंधो के बीच ख़ासा तनाव आ गया.
लेकिन उसके बाद सन् 2013 में मनमोहन सिंह और सन् 2016 में नरेंद्र मोदी ईरान की यात्रा पर गए.
इसके अलावा, भारत के इसराइल और सऊदी अरब से गहराते संबंधों का असर ईरान के साथ रिश्तों पर पड़ना स्वाभाविक था.
हालांकि ईरान से व्यापारिक और ऊर्जा संबंधों के ज़रिए इन मतभेदों को पाटने की कोशिशें ज़रूर हुईं लेकिन दोनों देशों के राजनीतिक मतभेद बरकरार रहे.
एमा ग्राहम हैरिसन ने गार्डियन अख़बार में ‘अफ़गान तालिबान सेंड डेलिगेशन टु ईरान’ शीर्षक से अपने लेख में लिखा है, “अफ़गानिस्तान के भीतर ईरान की ख़ुफ़िया एजेंसियों ने अफ़गान तालिबान के एक धड़े और दूसरे अमेरिकी विरोधी तबकों से उनके सुन्नी होने के बावजूद संबंध बनाने शुरू कर दिए और उन्हें वित्तीय सहायता देनी शुरू कर दी.”
“भारत के नीति निर्धारकों के लिए ये एक बहुत बड़ी चुनौती थी जो तालिबान और पाकिस्तान विरोधी मुहिम में ईरान के सक्रिय सहयोग की उम्मीद कर रहे थे.”
चाबहार बंदरगाह में भारत के निवेश और ज़राँज-डेलाराम हाइवे ने भारत- ईरान-अफ़गानिस्तान के रिश्तों को त्रिपक्षीय सामरिक विस्तार दिया.
ये हाइवे ईरान को अफ़ग़ानिस्तान से जोड़ता है और अफ़ग़ानिस्तान को सामान भेजने के लिए भारत ईरानी ज़मीन का इस्तेमाल कर सकता है.
अफ़ग़ानिस्तान में बने सलमा बांध पर ईरान की नाराज़गी
भारत ने अफ़ग़ानिस्तान में सलमा बांध बनाया है, जिसकी वजह से काबुल और तेहरान के बीच तनाव पैदा हुआ ही बल्कि भारत से भी ईरान की नाराज़गी हुई.
अविनाश पालीवाल लिखते हैं, “हरि रुद नदी पर बनाए गए इस बांध को ईरान ने पसंद नहीं किया. सलमा बांध की वजह से ईरान जाने वाले पानी पर अफ़ग़ानिस्तान का नियंत्रण हो गया. पानी के बँटवारे के मुद्दे पर दोनों देशों में अविश्वास का एक इतिहास रहा है.”
इससे पहले 1971 में हेलमंद नदी के पानी बँटवारे के मुद्दे पर दोनों देशों के राजनयिकों के बीच तीखे बयानबाज़ी हुई थी.
सन् 1998 में जब मज़ार-ए-शरीफ़ में ईरानी राजनयिकों के अपहरण के बाद ईरान ने अफ़गानिस्तान पर हमले की धमकी दी थी.
अविनाश पालीवाल लिखते हैं, “तालिबान सरकार ने हेलमंद नदी का रुख़ दक्षिण की तरफ़ मोड़ कर हमूं-ए-हेलमंद झील को सुखा दिया था, जिससे उस इलाके की फसल और वन्यजीव तबाह हो गए थे.”
28 फ़रवरी, 2005 को उस समय के ईरान के विदेश मंत्री कमाल ख़राज़ी ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मिलकर सलमा बांध बनाने के बारे में आधिकारिक शिकायत की थी.
इस मामले के भारत का कहना था कि ईरान और अफ़ग़ानिस्तान को आपस में बात करनी चाहिए.
भारत के लिए ईरान की अहमियत
ईरान तालिबान के सामरिक गठजोड़ ने सवाल खड़ा किया कि जब शिया ईरान और सुन्नी तालिबान के बीच सहमति बन सकती है तो भारत भी ऐसा क्यों नहीं कर सकता?
कई मुद्दों पर ईरान के साथ तनावपूर्ण रिश्तों और अमेरिकी के विरोध के बावजूद दोनों देशों ने चाबहार जैसी परियोजनाओं पर साथ-साथ काम करना जारी रखा है.
अमेरिका से भारत के बढ़ते रिश्तों और ईरान की चीन से बढ़ती क़रीबी, खाड़ी और अफ़ग़ानिस्तान की क्षेत्रीय राजनीति और तालिबान की सत्ता में वापसी के बावजूद भारत ने ईरान से दूरी नहीं बढ़ाई है.
ईरान पर अमेरिकी प्रतिबंध के बावजूद भारत की अब भी ईरान की मदद से स्थायी ऊर्जा आपूर्ति को बनाए रखने में पूरी दिलचस्पी है.
पश्चिम के बढ़ते दबाव को देखते हुए ईरान भी भारत को अपने तेल निर्यात का महत्वपूर्ण लक्ष्य मानता है.
राजनीतिक तनाव के बावजूद भारत के लिए ईरान का सामरिक महत्व कम नहीं हुआ है.